गंगा –
हमारे देश को बनाने में प्रकृति की दो अद्भुत चीज़ों का बहुत बड़ा हाथ है। वे हैं हिमालय और गंगा। तुम जानते हो कि यदि हमारे देश के उत्तर में हिमालय न होता तो मानसून से होनेवाली वर्षा का पानी हमें न मिलता। साथ ही उत्तर के पठार से आने वाली ठंडी हवाएँ हमारे देश के मैदान को बंजर-सा बना देती। इस तरह हिमालय हमारे देश का संरक्षक है। वह पानीभरी मानसूनी हवाओं को इधर ही रोक लेता है और बर्फ़ली ठंडी हवाओं को उस पार से ही लौटा देता है।
पर केवल इतने से ही हमारे देश का बड़ा मैदान उपजाऊ और निवास-योग्य नहीं बन गया। हिमालय की चोटियों पर बर्फ़ के रूप में जमे पानी को नीचे मैदान तक उतारकर भी तो लाना था ताकि वह यहाँ के निवासियों को जीवन दे सके। यह काम गंगा नदी ने किया। गंगा एक प्रकार से भारसीय सभ्यता का आधार रही, है। इसी में बहकर आई हुई, उपजाऊ मिट्दी से वह विस्तृत मैदान बना है जिसमें प्राचीन आर्य-सभ्यता का उदय और विकास हुआ। इसी के किनारे हमारे देश के इतिहास की सबसे प्रमुख घटनाएँ घटी हैं।
कहा जाता है कि अपने साठ हजार पूर्वजों को तारने के लिए भगीरथ बड़ी तपस्या करके गंगा को पृथ्वी पर उतार कर लाए थे। लगता है भगीरथ एक महान इंजीनियर थे जो पहाड़ों को काट-काटकर तथा अन्य कई धाराओं को गंगा के साथ मिलाकर इसे मैदान की ओर लाए होंगे। इस कथा से भगीरथ के अथक परिश्रम का पता लगता है। इसी कारण आज भी कठोर परिश्रम को भगीरथ-प्रयत्न कहते हैं।
गंगा का उद्गम गंगोत्री से उनतीस किलोमीटर ऊपर गोमुख नामक स्थान पर है। गंगोत्री केदारनाथ से लगभग चालीस किलोमीटर आगे है और लगभग पाँच हज़ार मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ बर्फ़ीले पहाड़ों की श्वेत, स्वच्छ बर्फ़ ही पिघल-पिघलकर नन्हीं-सी नदी के रूप में नीचे की ओर बहना आरंभ करती है। यहाँ इसे भगीरथी कहते हैं। पर्वत की घाटियों के बीच भागीरथी कूदती-फाँदती, अठखेलियाँ करती, चट्टानों से टकराती, प्रपात बनाती हुई अदम्य बेग और उत्साह से आगे बढ़ती है। हरे-भरे पर्वतों के बीच भागीरथी पिघली हुई चाँ की बहती धारा-सी प्रतीत होती है। देवप्रयाग में यह अपनी सहेली अलकनंदा को अपने साथ ले लेती है। यहीं से इसका नाम गंगा पड़ता है और इसी नाम से यह यह बंगाल तक पुकारी जाती है।
हिमालय की पर्वत-श्रेणियों के बीच लगभग 175 किलोमीटर की दूरी पारकर गंगा ऋषिकेश पहुँचती है। यहाँ बहुत-से आश्रम बने हुए हैं जहाँ धार्मिक लोग रहकर स्वाध्याय और तपस्या करते हैं। ऋषिकेश से तीस किलोमीटर नीचे हरिद्वार बहुत बड़ा तीर्थ स्थान है। हर बारहवें वर्ष यहाँ कुंभ का मेला लगता है। यहाँ का प्राकृतिक दृश्य बहुत सुदर तथा वातावरण बहुत शांत है। हरिद्वार में बहुत-से मंदिर और धर्मशालाएँ बनी हुई हैं। प्रतिवर्ष लाखों यात्री विभिन्न पर्वों पर गंगास्नान करने हरिद्वार आते हैं।
हरिद्वार में ही गंगा से प्रसिद्ध गंग नहर निकाली गई है जो लगभग 18 लाख एकड़ भूमि की सिचाई करती और अपने किनारे के प्रदेशों को धन-धान्य, से भरती हुई कानपुर तक जाकर फिर गंगा में मिल जाती है। इस नहर से बिजली भी बनाई जाती है। गंगा तो निरंतर बहती रहती है। इतिहास या भूगोल की किसी घटना से बँधकर यह रुक नही जाती। बहना ही इसका जीवन है।
हस्तिनापुर के आगे गंगा पहले दक्षिण और फिर दक्षिण-पूर्व दिशा में बहती हुई भारत के प्रसिद्ध औद्योगिक नगर कानपुर पहुँचती है। यहाँ कपड़े और चमड़े के बड़े-बड़े कारखाने हैं। इन सभी कारखानों के लिए पानी गंगा से ही आता है। यदि नदियाँ न हों तो हमारे अधिकाँश उद्योग-धंधे ठप हो जाएँ। यही कारण है संसार के लगभग सभी बड़े-बड़े औद्योगिक नगर किसी न किसी नदी या समुद्र के किनारे बसे हैं। कानपुर से लगभग 200 किलोमीटर आगे प्रयाग है जो तीर्थराज माना जाता है। प्रयाग को ही आजकल इलाहाबाद कहते हैं। यहाँ गंगा और यमुना नदी का संगम होता है। प्रत्येक बारहवें वर्ष यहाँ भी कुंभ का प्रसिद्ध मेला लगता है।
प्रयाग के आगे पूरब की ओर बहती हुई गंगा वाराणसी पहुँचती है जहाँ विश्वनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। गंगा यहाँ अर्द्धचंद्राकर रूप में बहती है। इसके किनारे-किनारे यहाँ अनेक घाट बने हुए हैं जिनमें से कई बहुत प्राचीन हैं। शाम के समय शंख और घंटे की ध्वनि के साथ जब आरती होती है तब यहाँ का दृश्य बहुत अच्छा लगता है। बहुत से लोग इन घाटों की शोभा देखने के लिए ही नावों में बैठकर नदी में सैर करते हैं। वाराणसी से कुछ आगे गंगा बिहार में प्रवेश करती है। हिमालय से निकली हुई घाघरा, गंडक और कोशी नदियाँ यहाँ बाई ओर से आकर इसमें मिलती हैं। मध्य पठारों की लाल भूमि से निकली सोन नदी पटना के निकट आकर गंगा में अपना लाल जल मिलाती है।
इन सभी नदियों का पानी लेकर गंगा का आकार बहुत विशल हो जाता है। पर गंगा का हृदय भी तो कितना विशाल है !. यह अपने पास आनेवाली सभी नदियों का पानी अपने में मिलाकर अपने जल से एकाकार करती जाती है। गंगा किसी में भेदभाव नहीं करती। यह सभी को समान भाव से अपने साथ ले जाना चाहती है। सूरदास ने ठीक ही कहा था :
इक नदिया इक नार कहावत मैलो ही नीर भरो।
जब दोनों मिलि एक बरन भए सुरसरि नाम परो।
पटना के बाद भागलपुर होती हुई गंगा बिहार राज्य में पूर्वी सीमा पर राजमहल की पहाड़ियों से टकराती हुई बंगाल में प्रवेश करती है। यहाँ धुलियान से आगे गंगा की दो धाराएँ हो जाती हैं। इनमें से एक धारा बांग्ला देश में चली जाती है। और पदा नाम ग्रहण करती है। दूसरी धारा हुगली के नाम से कलकत्ता की ओर जाती है। कलकत्ता भारत का प्रसिद्ध व्यापारिक नगर और बंदरगाह है। समुद्र के किनारे पहुँचने के कारण गंगा की चाल बहुत मंथर हो जाती है। लगता है गंगा जैसे अपने गंतव्य पर पहुँचकर शांति प्राप्त कर रही हो।
अपने लक्ष्य को प्राप्तकर किसे प्रसन्नता नहीं होती ! गंगा की इतनी लंबी यात्रा मानो समुद्र से मिलने के लिए ही थी। यह अपने डेल्टा की अनेक धाराओं से समुद्र का आलिंगन कर उसके साथ एकाकार हो जाती है। आनंद के उस असीम सागर में मिलकर गंगा अपने स्वरूप को बिलकुल ही बिसरा देती है।
पर कब तक ? फिर समुद्र का पानी भाप बनकर उड़ता है और मानसून के साथ जाकर हिमालय की चोटियों पर जम जाता है। फिर श्वेत, स्वच्छ बर्फ़ पिघलती है और गंगा एक बार फिर अपनी लंबी यात्रा उसी प्रसन्नता और उसी उत्साह से आरंभ करती है ताकि यह एक बार फिर हम भारतवासियों का उपकार करने का अवसर पा सके।