(क) इस काव्यांश का आशय यह है कि नायिका घर में अकेली है। उसका प्रियतम बाहर गया हुआ है। यह नायिका प्रोषितपतिका है। नायिका प्रिय के बिना इस सूने घर में नहीं रह पाती है। वह नायिका अपनी सखी से जानना चाहती है कि भाला ऐसा कौन व्यक्ति है जो दूसरे के दारुण (कठोर) दुःख पर विश्वास कर सके अर्थात् कोई किसी के कठोर दुझख की गंभीरता को नहीं समझता।
(ख) नायिका संयोग काल में भी अतृप्त रहती है। वह जन्म-जन्म से अपने प्रियतम के रूप को निहारती चली आ रही है फिर भी आज तक उसके नेत्र तृप्त नहीं हो सके हैं। वह प्रिय के मधुर वचनों को भी अपने कानों से सुनती चली आ रही है फिर भी उसके बोल पहले से सुने नहीं लगते। रूप एवं वाणी में सर्वथा नवीनता बनी रहती है और यही अतृप्ति के कारण हैं।
(ग) इन पंक्तियों का आशय यह है कि नायिका को संयोग कालीन प्राकृतिक वातावरण अच्छा प्रतीत नहीं होता क्योंकि वह स्वयं वियोगावस्था में है। वियोगावस्था में यही मनःस्थिति होती है। नायिका न तो विकसित अर्थात् खिलते फूलों को देखना चाहती है और न कोयल और भौँर की मधुर ध्वनि को सुनना चाहती है। वह आँख-कान बंद् कर लेती है। इन्हें देखने-सुनने से उसकी विरह-व्यथा और भी बढ़ जाती है।