सुभागी ‘रंगभूमि’ उपन्यास की गौण स्त्री पात्र है, पर उसका चरित्र अन्य गौण पात्रों में सर्वाधिक उभरकर सामने आता हैं। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. उपेक्षित एवं तिरस्कृतः सुभागी भैरों पासी की पत्नी है। वह पांडेपुर गाँव की एक नारी है। उसके पति की ताड़ी की दुकान है। वह खुद भी ताड़ी पीता है और नशे में चूर होकर पत्नी सुभागी को पीटकर अपना पुरुषार्थ दिखाता है। सुभागी की सास भी कम नहीं है। वह उसकी चाहे जितनी सेवा करे, हमेशा तुनकी ही रहती है। वह भैरों को सिखाकर दिन में एक बार सुभागी को पिटवाकर ही दम लेती है। सुभागी पति और सास दोनों से त्रस्त है, दोनों से उपेक्षित और तिरस्कृत। वह पति और सास से ऐसे ही काँपती है, जैसे कसाई से गाय। पति और सास को खिलाकर बचा-खुचा, रूखा-सूखा स्वयं खाती है, फिर भी उसे ताने-उलाहने सुनने पड़ते हैं, “न जाने इस चुड़ैल का पेट है या भाड़।”
2. पीड़ित एवं व्यथित : निरीह सुभागी अपना दुखड़ा किसके सामने रोए? उसकी व्यथा-कथा को सुनकर कौन उसके प्रति संवेदना प्रकट करेगा? वह अनपढ़ है, गँवार है और एक साध रण स्त्री है। वह चुपचाप सारी पीड़ा और भर्त्सना आँचल में मुँह छिपाए पीती रहती है और भीतर ही भीतर घुटती रहती है। वह उस नारी वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जो अपने दांपत्य जीवन के वैषम्य के कारण दुखी और पीड़ित है। यह वर्ग अपनी मर्म-व्यथा का एक शब्द भी नहीं बोल सकता। प्याज न मिलने पर उसका पति भैरों गरजता है- “क्या मुझे बैल समझती है, कि भुने हुए मटर लाकर रख दिए, प्याज क्यों नहीं लाई?”
3. चारित्रिक दृढ़ता : मार-पीट के बावजूद सुभागी के चरित्र में कोई स्खलन दिखाई नहीं देता। पति के दुर्य्यवहार के बाद भी वह उसकी मंगल-कामना ही करती है। वह सूरदास का आश्रय अपनी इज्जत आबरू बचाने के लिए लेती है। ………… लेकिन मेरी आबरू कैसे बचेगी? है कोई मुहल्ले में ऐसा, जो किसी की इज्जत आबरू जाते देखे, तो उसकी बाँह पकड़ ले।”
4. कृतज्ञता का भाव-अनपढ़ और गँवार है तो क्या, सुभागी में मनुष्यता का गुण विद्यमान है। उसमें कृतज्ञा की भावना है। सुभागी के आड़े अवसर पर सूरदास ही काम आता है। इसलिए सूरदास के प्रति उसके मन में कृतज्ञता का भाव है। जब उसे पता चलता है कि भैरों ने सूरदास के रुपयों की थैली चुराई है तब वह निश्चय करती है-अब चाहे वह मुझे मारे या निकाले; पर रहूँगी उसी के घर। कहाँ-कहाँ थैली को छिपाएगा? कभी तो मेरे हाथ लगेगी। मेरे ही कारण इस पर बिपत पड़ी है। मैंने ही उजाड़ा है, मैं ही बसाऊँगी। जब तक इसके रुपये न दिला दूँगी। मुझे चैन न आएगा।”