1. दूलह राम, सिय दुलही री।
घन-दामिनि-बर बरन, हरन मन
सुंदरता नखसिख निबही, री।।
ब्याह-विभूषन-बसन-विभूषित,
सखि-अवली लखि ठगि सी रही, री।
ज़ीवन-जनम-लाहु लोचन-फल है इतिनोइ,
लह्यो आजु सही, री॥
सुखमा-सुरभि सिंगार-छीर दुहि,
मयन अमिय-मय कियो है दही, री।
मथि माखन सिय राम संवारे,
सकल-भुवन-छबि-मनहु मही, री।
तुलसीदास जोरी देखत सुख शोभा,
अतुल न जाति कही, री!
रूय रासि बिरजी बिरंचि मनो,
सिला लवनि रति काम लही, री।।
2. मन पछितैहें अवसर बीते।
दुर्लभ देह पाइ हरिपद भजु करम बचन अरु ही ते॥
सहसबाहु, दसवदन आदि नृप बचे न काल बली ते।
हम हम करि धन धाम संवारे, अंत चले उठि रीते॥।
सुत, बनितादि जानि स्वारथ-रत न करु नेह सबही तें।
अंतहुं तोहिं तजैंगे, पामर! तू न तजै अबही तें।।
अब नाथाहिं अनुराग जागु जड़, त्याग दुरासा जी ते।
बुझै न काम-अंगिनि तुलसी कहुँ विषय-भोग बहु बी तें।।
3. खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सौं ‘कहाँ जाइ का करी’?
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबै पै, राम! रावरे कृपा करी।।
दारिद-दसानन दवाई दुनी, दीनबंधु!
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।।
सेनापति
ग्रीष्म
वृष कौ तरनि तेज सहसो किरन करि
ज्वालन के जाल बिकराल बरसत है।
तपति धरनि, जग जरत झरनि सीरी
छाँह कौं पकरि पंथी-पंछी बिरमत हैं।।
सेनापति नैक दुपहरी के ढरत होत
धमका विषम, ज्यौं न पात खरकत हैं।
मेरे जान पौनौं सीरी ठौर कौ पकरि कौनों,
घरी एक बैठि कहूं घामें बितवत हैं।।
वर्षा
दामिनी दमक सोई मंद बिहसनी, बग –
माल है बिसाल सोई मोतिन कौ हारों है।
बरन-बरन घन रंगित बसन तन,
गरज गरूर सोई बाजत नगारौ है।।
सेनापति सावन कौ बरसा नवल वधु,
मानो है बराति साजि सकज सिगारौ है।
त्रिबिध बरन परयौ इंद्र कौ धनुष लाल
पन्ना सौं जटित मानौं हेम खगवारौ है।
शरव
कातिक की राति थोरी-थोरी सियराति,
सेनापति है सुहाति सुखी जीवन के गन हैं।
फूले हैं कुमुद, फूली मालती सघन वन,
फूलि रहे तारे मानो मोती अनगन हैं।।
उदित बिमल चंद, चाँदनी छिटकि रही,
राम कैसौ जस अंध ऊरध गगन हैं।
तिमिर हरन भयौ सेत हैं बरन सब,
मानहु जगत छीर-सागर मगन हैं।।
रसखान
मानुष हों तो वही ‘रसखानि’,
बसों ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पशु हौं तो कहा बस मेरो,
चरौं नित नंद की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हों तो बसेगों करौं नित, कालिंदी कूल कदेंब की डारन।
गोकुल के कुल के गली के गोप गाउन के
जौ लगि कछू को कछू भाखत भनै नहीं।
कहै पद्याकर परोस पिछवारन कै
द्वारन के दौरि गुन औगुण गनें नहीं
तौ लौं चलि चतुर सहेली याहि कोऊ कहूँ,
नीके कै निचोरे ताहि करत मनै नहीं।
हों तो स्याम रंग में चुराइ चित चोरा चोरी,
बोरत तों बोर्यो पै निचोरत बनै नहीं।