प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार एवं समालोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज का परिचय देता है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि बाहर से बेशर्म दिखाई देने वालों की जड़ें कई बार बड़ी गहराई में समाई होती हैं अर्थात् बाहरी और आंतरिक स्थिति में भारी अंतर पाया जाता है। कुटज के वृक्ष भी बाहर से भले ही नीरस और सूखे प्रतीत होते हों पर वे इनकी जड़ें पत्थर की छाती को फोड़कर अत्यंत गहराई तक समाई होती हैं। ये तो पाताल जितनी गहराई से भी अपना भोजन खींच लाते हैं, तभी तो विषम परिस्थितियों में भी इनका अस्तित्व बना रहता है। ये वृक्ष ऊपर से भले ही बेहया अर्थात् मस्तमौला दिखाई देते हों पर ये भीतर से बहुत गहरी सोच रखते हैं। जब इन्हें अपना काम पूरा करना होता है तो विषम परिस्थितियों में भी रास्ता खोज लेते हैं।
विशेष :
(ख) रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे ‘सोशल सैंक्शन’ कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि-मानव की चित्त-गंगा में स्नात।’
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार एवं समालोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज का परिचय देता है।
व्याख्याः रूप का सत्य व्यक्ति तक सीमित रहता है अर्थात् रूप का प्रभाव व्यक्ति-विशेष पर पड़ता है। नाम का संबंध समाज से है। व्यक्ति अपने नाम से ही समाज में जाना जाता है। नाम वह पद होता है जिसे समाज की स्वीकृति मिली होती है। इसी स्वीकृति को आधुनिक समाज ‘सोशल सैंक्शान’ (Social Sanction कहता है अर्थात् यह नाम समाज में मान्य है। लेखक का मन भी इस वृक्ष का नाम जानने को बेचैन है। वह इसके उस नाम को जानना चाहता है जिसे समाज ने स्वीकार किया हो तथा इतिहास ने प्रमाणित किया हो और सभी लोगों के चित्त में समाया हो अर्थात् सभी दृष्टियों से मान्य एवं स्वीकृत हो। लेखक को दूसरा नाम कुटज देर से याद आता है।
विशेष :
(ग) ‘रूप की तो बात ही क्या है! बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण नि:श्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जलम्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है।’
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार एवं समालोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज का परिचय देता है।
व्याख्या : लेखक कुटज के रूप पर बलिहारी जाता है। उसे कुटज का रूप अत्यंत मनोहारी प्रतीत होता है। उसे इसकी शोभा मादक लगती है। यद्यपि चारों ओर भीषण गर्मी पड़ रही होती है फिर भी यह हरा-भरा बना रहता है। लू ऐसे चलती है जैसे यमराज अपनी दारुण साँसें छोड़ रहा हो। कुटज इससे अप्रभावित रहता है। वह इस विपरीत मौसम में भी खूब फलता-फूलता है। यह पत्थरों की अतल गहराई से भी अज्ञात जलस्रोत से अपने लिए रस खींच लाता है अर्थात् यह कहीं से भी हो अपना भोग्य वसूल ही कर लेता है। इसमें असीम जीवनी-शक्ति है। यह विषम प्राकृतिक परिस्थितियों में खुशी के साथ जीना जानता है और जीता है।
विशेष :
(घ) ‘हुदयेनापराजितः! कितना विशाल वह हूदय होगा जो सुख से, दु:ख से, प्रिय से, अप्रिय से विचलित न होता होगा! कुटज को देखकर रोमांच हो आता है। कहाँ से मिली है यह अकुतोभया वृत्ति, अपराजित स्वभाव, अविचल जीवन दृष्टि!’
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार एवं समालोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘कुटज’ से अवतरित है। इसमें लेखक कुटज का परिचय देता है।
व्याख्या : हूदय से पराजित न होना। वह आदमी बड़ा ही विशाल हदय होता है जो सुख से, दुःख से, प्रिय से, अप्रिय से विचलित नहीं होता अर्थात् जो व्यक्ति सभी स्थितियों में एक समान रहते हैं वे निश्चय ही विशाल हृदय वाले होते हैं। कुटज भी इसी प्रकार का होता है। उसको देखकर रोमांच हो आता है। पता नहीं कहाँ से मिली उसे ऐसी निडरता। उसमें किसी से भयभीत न होने की प्रवृत्ति झलकती है। वह किसी कि सम्मुख हार स्वीकार नहीं मानता। वह किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होता। उसकी जीवन दृष्टि विशाल है।
विशेष :