महामानव निराला – रामविलास शर्मा
‘महामानव निराला’ श्री रामविलास शर्मा द्वारा रचित एक सफल संस्मरण है। इसका सार इस प्रकार है –
सन् 1934 से 38 तक का काल निराला जी के कवि-जीवन का सबसे अच्छा काल था। इसी काल में उनकी श्रेष्ठ रचनाएँ ‘परिमल’, ‘गीतिका’, ‘राम की शक्ति पूजा’, ‘तुलसीदास’, ‘सरोज स्मृति’ आदि काव्य तथा ‘प्रभावती ‘ और ‘ निरुपमा’ आदि उपन्यास रचे गए। इससे पहले काल को तैयारी का और बाद के काल को सूर्यास्त के बाद का प्रकाश भर कहा जा सकता है।
निराला जी कविता लिखने से पहले उसकी चर्चा बहुत कम करते थे। वे कविता के भाव को मन में सँजोए रहते थे और धीरे-धीरे वे भाव कविता का आकार ग्रहण करते जाते थे। उनके मन की गहराई को जानना संभव न था। इस प्रक्रिया में वे किसी से बात भी न करते थे। निराला जी ने लेखक को लखनऊ में एक मकान में ‘तुलसीदास’ कविता के दो बंद (छंद) सुनाए थे। एक दिन उन्होंने ‘राम की शक्ति पूजा’ का पहला छंद सुनाकर पूछा था-” कैसा है?” तारीफ सुनकर बोले-” तो पूरा कर डालें इसे।” निरालाजी की बहुत सी कविताएँ आसानी से समझ में नहीं आतीं। लोग उन पर कई प्रकार के आक्षेप लगाते थे कि वे शब्दों को ढूँस-ढूँसकर किसी तरह कविता पूरी कर देते हैं। पर सच्चाई यह थी कि वे कविता लिखने में बहुत परिश्रम करते थे। वे एक-एक शब्द का ध्यान रखते थे। पसंद न आने पर दुबारा लिखते। उनके कई अधलिखे पोस्टकार्ड मिलते हैं।
कविताएँ पढ़ने और सुनाने में उन्हें बहुत आनंद आता था। उन्हें सैकड़ों कविताएँ याद थीं। वे भाव-विद्वल होकर हाव-भाव के साथ कविता सुनाते थे। कविता को लेकर वे अंग्रेजी व संस्कृत के आचायों की परीक्षा तक ले चुके थे। उनका घर साहित्यकारों का तीर्थ था। पंत जी प्रायः उनके घर आते थे। एक बार निरालाजी ने पंत से कविता सुनाने का आग्रह किया तो उन्होंने कोमल स्वर में ‘जग के उर्षर आँगन में, बरसो ज्योतिर्मय जीवन’ शीर्षक कविता सुनाई थी।
एक बार जब उनके यहाँ जयशंकर प्रसाद जी पधारे तो उन्होंने उनके साथ ऐसे बातें कीं मानो उनका बड़ा भाई आ गया हो। वे प्रसाद जी की कविताओं के प्रशंसक थे। वे अन्य साहित्यकारों का भी बहुत सम्मान करते थे। हाँ, वे स्वाभिमानी बहुत थे। राजा साहब के सामने अपना परिचय इस प्रकार दिया- “हम वो हैं जिनके दावा के दादा के दादा की पालकी आपके दावा के दादा के दादा ने उठाई थी।” एक साधारण से कहानीकार
‘बलभद्र दीक्षित पढ़ीस’ को उन्होंने लेखक से सम्मानपूर्वक परिचित कराया। नई पीढ़ी के लेखकों पर उनकी विशेष कृपा रहती थी। जिससे प्रसन्न होते थे उसे कालिका भंडार में रसगुल्ले खिलाते थे। वे मुँहदेखी प्रशंसा से चिढ़ते थे।
निरालाजी अपने तकों से विरोधियों को पछाड़ देते थे। कहानियाँ लिखने से पूर्व उनकी चर्चा किया करते थे। वे अपनी बात अभिनय करके समझाने की कला में पारंगत थे। हर चीज का सक्रिय प्रदर्शन ही उन्हें पसंद था। उन्हें बेईमानी से चिढ़ थी। वे कुछ प्रकाशकों की बेईमानी से चिढ़कर उनकी पूजा कर चुके थे। वैसे वे बहुत व्यवहार-कुशल थे। विरोधी का सम्मान करते थे। एक साहित्यकार ने उन पर व्यक्तिगत आक्षेप लिखा था। इस पर उनका संदेश था- “तुम्हारे लिए चमरौधा भिगो रखा है।” पर उसके लखनऊ आने पर केले-संतरों से उसका सत्कार किया।
निरालाजी खेलों के भी शौकीन थे। कबड्डी और फुटबॉल खेल लिया करते थे। जवानी में उनका शरीर बड़ा सुडौल था। वे गामा और ध्यानचंद के कौशल की तुलना रवींद्रनाथ ठाकुर से किया करते थे। उनमें तंबाकू फाँकने का व्यसन था, जिसे वे चाहकर भी नहीं छोड़ पाए। निरालाजी पाक-कला में सिद्धहस्त थे। वे अपनी कविता की आलोचना तो सह जाते थे, पर अपने बनाए भोजन की निंदा सुनना उन्हे बहुत बुरा लगता था।
वे गरीबी में रहे पर ख्वाब देखा महलों का। एक बार प्रकाशक से दस-द्स के पाँच नोट लेकर उनसे पंखे का काम लेते हुए सड़क पर जा रहे थे कि एक विरोधी कवि ने अपना दुखड़ा रोकर उनसे एक नोट झटक ही लिया। वे नाई को भी बाल कटवाने के धोती या लिहाफ दे देते थे।
अच्छी पोशाक पहनने और अपनी तारीफ सुनने का उन्हें शौक था। वैसे चाहे गंदे कपड़े पहने रहते पर कवि सम्मेलन में
जाते समय साफ कुरता-धोती पहनते थे तथा चंदन के साबुन से मुँह धोना व बालों में सेंट डालना नहीं भूलते थे। वे खाने-पीने तथा पहनने-ओढ़ने के शौकीन थे। अपने को वे साधारण आदमियों में गिनते थे। महामानव बनने तथा पूजा-वंदना से उन्हें चिढ़ थी। वे चतुरी चर्मकार के लड़के को अपने घर बुलाकर पढ़ाते थे। फुटपाथ पर पड़ी रहने वाली भिखारिन से उन्हें सहानुभूति थी।
इतना सब होते हुए भी उनका मन एकांत में दुःख में डूबा रहता था। उन्हें जीवन में लगातार विरोध और अपने प्रियजनों का विद्रोह सहना पड़ा था। अपनी पुत्री सरोज की अकाल मृत्यु ने उन्हें बुरी तरह झकझोर दिया था। वे दूसरों के दु:ख से भी दुःखी रहते थे। निरालाजी हिंदी प्रेमियों के हृदय-सम्राट् थे। वे साहित्यकार और मनुष्य दोनों रूपों में महान् थे।