कवयित्री ने ‘माटी के रंग’ शब्दों का प्रयोग अपनी अस्मिता को बचाए और अपनी मूल पहचान को बनाए रखने के लिए किया गया है। इस कविता में कवयित्री क्षेत्रीय संथालों के लोक जीवन की महत्ता को बताती है। वे उनकी स्वाभाविक सम्वेदनाओं को (सादगी, मासूमियत, प्रकृति के प्रति लगाव), शहरीकरण के आवरण से दूर रखने की ओर इशारा करती हैं। जिस प्रकार शहरी संस्कृति ने अनेक संस्कृतियों की कब्रों के ऊपर, अपनी इमारत खड़ी की है। वे नहीं चाहती हैं, कि जो वर्तमान में संस्कृति शेष है, वो भी कब्र में बंद न हो।